दर्पण - त्राटक / डॉ सुनीता शर्मा की कलम से
जे पी शर्मा
मैं एक दर्पण हूं मुझ में.....
मनुज दर्पण त्राटक चेष्टा करता है
स्वयं को एक दर्पण बना लेता है।
उसके चक्षुओं में सजीव दृश्य
चलचित्र सा गतिमान हो जाता है।
मैं एक दर्पण हूं मुझ में.......
प्रतिबिंबित होती एक नन्ही कन्या
किलकारी भर हास्य करती सी
एक किशोरी चंचल मदमस्त
कूचाले भरती जंगल की हिरनी सी।
मैं एक दर्पण हूं मुझ में......
एक नव यौवना गर्वित हो
स्व रूप पर रीझति पद्मिनी सी।
एक प्रोढा रूढ़ीवादी श्रृंखलाएं
विछिन्न कर चुनौती देती सी ।
मैं एक दर्पण हूं मुझ में......
एक योग साधक के आज्ञा चक्र में
जब त्राटक के अंतिम चरण में,
बिंब प्रतिबिंब विलीन हो जाता हैं
मैं एक शुन्य हो रिक्त हो जाता हूं।
डॉ सुनीता शर्मा "शानू"
गांधी नगर ( गुजरात)
स्वरचित मौलिक रचना